एक और दिन....
यह साल एक दिन ज़्यादा ले आया है , अचानक यूँ ख़्यालों का सैलाब ले आया है ! कोई साज़िश ही है शायद , जो यह बिन माँगे पलों का ख़ज़ाना ले आया है ! सोच रही हूँ ... आप क्या कीजिएगा ? सुबह से शाम बस यूँही गवाँ दीजिएगा ? माँ हूँ - तो एक दिन के लिए .... रोक लूँ बचपन अपने बच्चों का ? किलकारियाँ बांध लूँ किसी गठरी में ? आँचल ओढ़ा दूँ या लोरी सुना दूँ ? या हाथों से अपने खाना खिला दूँ ? एक बार फिर माथे पर हाथ फेर लूँ ? सुबह से शाम ..... बहन ...