मेरी पहचान
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जब दुनिया में आई, तो उनकी बिटिया रानी कहलायी, कभी दीदी तो कभी छोटी बहन बन सुहायी! कभी यार-दोस्त तो कभी बनी हमराज़, ज़िंदगी हर मोड़ पर छेड़ती गई नया साज़! जब अर्धांगनी बनी, तो एक और सुनहरा पिटारा खुला, बहू, मामी, चाची, भाभी का ऊँचा ओहदा मिला! फिर प्यारे बच्चों की अठखेलयाँ देख ज़िंदगी हुई गुलज़ार, जब ममता की दहलीज़ पर कदम रखा मैंने पहली बार! Confuse सी हो गई मैं, कि आख़िर क्या है मेरी पहचान का सार… क्या हमेशा दूसरों के नाम से ही जानी जाऊँगी हर बार? नाम एक, पर हर कसौटी की अलग परख, ये सोच-सोच दुखी होऊँ या मनाऊँ मैं हरख?! अपनी अलग पहचान बनाने का सोचा तो इन्हीं रिश्तों का सहारा मिला, तब समझ में आया की इनसे ही तो है दिलों का सिलसिला! ये वो रिश्ते होते हैं, जिनसे मुनाफ़ा नहीं होता, पर अमीरी में, इनसे ज़्यादा, कहीं और इज़ाफ़ा भी नहीं होता! पहचान क्या पद या पदवी से होती है? अरे ये तो आपको मिलते ही लोगों की मुस्कान से होती है! की आप किसी कमरे में दाख़िल हों, तो लोग ये ना कहें, ‘अरे ये यहाँ भी आ गई?’ पर ये कहने पर मजबूर हो जायें, ‘अरे, ये यहाँ भी आ गई!’ -नम्रता राठी सारडा(ड्रामा क्वीनः रीलोडेड)