दायरा


दायरा

क्या समाज की बेड़ियाँ है दायरा?

या अपने-अपने हालात का परिणाम है दायरा?

हम दुनिया में आये तो आज़ाद थे,

फिर भी ज़ंजीरों ने हर जगह हमें है जकड़ लिया!


दहलीज़ पार करो तो आधुनिक हो,

घर की चार दीवारी में रुक जाओ तो प्राचीन हो...

सर पर पल्ला ले लो तो पुरातन कहलाओगी,

पश्चिमी कपड़े पहन लिए तो अग्रसर हो!


नौकरी करो तो 'क्या कमी है?'

गृहणी बनो तो 'काम ही क्या है?'

शादी ना करो तो 'क्या हो सकता है कारण?’

बच्चे ना हो तो 'क्या किस्मत है!'


परिवार के साथ रहो तो 'घर में दस हाथ हैं!'

अकेले रह लो तो 'घर को तोड़ दिया है!’

कम दोस्त हो तो 'बनती ही कहाँ होगी?!’

बहुत यारी हो तो 'निकम्मा है!’


सीताजी ने उलाँघी जब लक्ष्मण-रेखा थी,

तब रामायण के रण की कहानी लिखी गई थी!

भीष्म पितामह ने जब नहीं उलाँघी थी अपने कर्तव्य की रेखा,

तब महाभारत के धर्मयुद्ध को नियति भी बदल नहीं पाई थी!


कहीं भी राहत नहीं मिलेगी...

दुनिया दोनों से तरफ से ही उंगली उठाएगी!

घांस दूसरी ओर हमेशा ही ज़्यादा हरी होती है,

हमारी मर्यादा, हमें ही पुख्ता करनी होगी!


ज़िन्दगी आपकी, तो फ़ैसले भी आपके हो,

फिर चाहे सिमट के खुश रहो,

या फिर अपने पंख फैला कर...

सोच भी आपकी, तो दायरे भी आपके अपने ही हो।


जाने कौनसा दायरा एक नई शुरुआत कर जाए!


-नम्रता राठी सारडा(ड्रामा क्वीनः रीलोडेड)

Comments

Popular posts from this blog

The Sibling Saga: To Be Or Not To Be

एक और दिन....